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ऐ बाबा, हे भाई। शान में गुस्ताखी माफ करना। गजब तेजी से चढ़ रहा है आप दोनों का ग्राफ। ब्रह्मोस मिसाइल मात खाती लग रही है। चढे़ भी क्यों नहीं, बात प्रोजेक्श़न की है। आपके भक्त किस तरह आपको प्रोजेक्ट करते हैं, खासियत इसमें है। कीर्तनिया किस तरह दरबार सजा कर गुणगान करते हैं, यह बहुत बड़ा फैक्टर है। मंदिरों में बैठे सीताराम, शिव-शक्ति और वीर बजरंगी जैसे तमाम देवगण, तो दिल्ली में बैठे आडवाणी-सुषमा जैसे लोग अपनी धीमी किस्मत को कोस रहे हैं। गोरखपुर से दिल्ली लौटते वक्त का एक वाकया बताऊं-एक दम फजिरे की बात है। कूपे में सब लोग परदा खींच कर चादर ताने सो रहे थे, मैं भी उन्हीं में शामिल था। लेकिन हमारे बराबर की बर्थ पर मौजूद एक भाईजी जग गए थे। उन्हें भोर में उठने की आदत होगी शायद। उनका मोबाइल गाए जा रहा था-मेरे घर के सामने साई तेरा मंदिर बन जाए, जब खिड़की खोलूं तो तेरा दर्शन हो जाए। कुनमुनाता हुआ मैं भी जग गया। पूछा शिरडी गए हैं ? जवाब था-जी हां, कई बार। यह भी पता चला कि हमारे ये पड़ोसी डॉक्टर साहब हैं। फिर चादर खींचते हुए मुझे बचपन की दो बातें याद आईं। गांव का बाशिंदा हूं। बाबा हमारे जब भोर में जगते, हरे राम हरे राम गोहराते थे। बाबा ही क्यों, तमाम छोटे-बड़े यही गोराहते थे-सीताराम, सीतराम, हर हर महादेव, जय हो दुर्गा माई। ऊं जय जगदीश हरे का भजन भी। दूसरी बात यह कि तब संतोषी माताजी परदे से उतरकर लोगों के दिलों में जा बैठीं थी। हर शुक्रवार को हम लोगों के मजे होते थे। दो-चार घरों में उद्यापन होते ही थे। वहां पकड़ ले जाए जाते थे खिलाने के लिए। खाकर चलते वक्त हिदायत मिलती थी कि आज कुछ खट्टा मत खाना। और अब-सबेरे सबसे ज्यादा गोहराए जा रहे हैं साईं भगवान। संतोषी माता का अब उद्यापन नहीं होता। हमारे पड़ोस के मंदिर में सालभर पहले तक साई भगवान नहीं थे और पुजारी जी दुबले। अब साईं भगवान विराजमान हैं और पुजारीजी लाल सेब हैं। गुरुवार की शाम मंदिरों का भ्रमण करने निकलिए तो देखिएगा-जहां साईं भगवान हैं वहां मेला है, जहां नहीं वहां इक्का दुक्का। यही तेजी रही तो राम के नामलेवा अल्पसंख्यक हो जाएंगे। या फिर साई बाबा संतोषी माताजी की तरह शांत हो जाएंगे। इसमें दोष हमारा नही है, हमारे हिंदुत्व के डीएनए में हैं। अतिरेक के रूप में। जहां जाते हैं, टूट पड़ते हैं। एकदम भेडि़याधसान। अरे हां, साई चर्चा में नमोजी तो गुम ही हो गए थे। क्या शानदार अंदाज में शैम्पेन की बोतल की तरह गुजरात से दिल्ली में खुले हैं। सोशल साइट्स तो इनकी कनीज हो गई हैं तो अखबार यार। लेकिन क्यों भाई। सिर्फ एक सवाल। अपने नमो भाई ने देश के लिए औरों से हटकर किया क्या है। आज की तारीख में इनके अलावा किसी एक नेता का नाम सामने नहीं है, जिसके जिक्रभर से देश की जनता दो हिस्सों में खड़ी हो जाती है। अभी पता चला है कि गुजरात का शहर हो या देहात, लोगों के खर्च करने की क्षमता घटी है। यानी जेब में माल आना कम हुआ है। मतलब रोजगार कम हुआ है। बस .. बस… और ज्यादा लिखना खतरे से खाली नहीं। हमारे तमाम मित्र मेरा मुंह नोच सकते हैं। लेकिन इतना तो कह ही सकता हूं कि सब कुछ कीर्तन का कमाल है। खासकर कीर्तनिया अगर काशी क्षेत्र का हो तो फिर क्या बात है? बजाए रहो कठताल गुरु, चमकाए रहो चांद।
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