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खद्दर में लकदक। खड़े-खड़े से सफेद बाल। कंधे पर गांधीजी वाला झोला। वह आते ही तख्त पर बैठ गए। बिना किसी भूमिका के उनका सीधा सा सवाल था–पहचानते हो मुझे? जी, कुछ-कुछ। शायद आप लोहियाजी हैं-मेरा जवाब था। फिर सवाल-कैसे पहचाना ? कई समाजवादी नेताओं के दफ्तरों में उनकी कुर्सी के पीछे आप फ्रेम में जड़े होते हैं, देखा है मैंने।–अच्छा तो ये समाजवादी कौन होते हैं ? इस सवाल ने मुझे कुछ परेशान कर दिया। क्या बताऊं, क्या बताऊं–इस उधेड़बुन के बीच अगले सवाल से पीछा छुड़ाने के लिए धीरे से जवाब सरका दिया-जो समाजवाद में विश्वास रखते हैं। वो कुछ देर चुप हो गए। चलो सवालों से पीछा छूटा, यह सोचकर लंबी सांस छोड़ने ही जा रहा था कि उन्होंने सवालों की पिच पर शेन वार्न के अंदाज में एक और फिरकी डाल दी-ये समाजवाद क्या होता है? इस बार जवाब के बदले मैंने सवाल कर दिया, आपसे बेहतर कौन जान सकता है समाजवाद और समाजवादियों के बारे में। समाजवाद के नाम पर झंडा उठाने वाले तो रामनामी की तरह लोहियानामी ओढ़े रहते हैं। मैं कुछ गलत कह रहा हूं तो आप ही बता दीजिए। अपनी अधकटी जैकेट में हाथ डालते हुए उन्होंने कहा-समाजवाद के बारे में मैं इतना कह चुका हूं, लिख चुका हूं कि अब कहने के लिए कुछ शेष नहीं है। अब तुम्हारी बारी है, तुम्हारे जैसे लोगों की बारी है। वैसे तो समाजवाद के बारे में मेरा हाथ कुछ ज्यादा ही तंग है। लेकिन
ऐसी महान विभूति का आदेश-निर्देश कैसे टाल सकता था। अवहेलना का आरोप लगाकर अपने चेलों से शिकायत कर देंगे तो मेरी टी शर्ट तार-तार हो जएगी, इस गुणा-भाग के साथ मैंने गपोड़ी बैठकों में जो कुछ सुना था, कहना शुरू कर दिया-मैंने तो यही सुना है कि एकाधिकारवाद का उन्मूलन ही सच्चा समाजवाद है, एकाधिकार चाहे पूंजी का हो या फिर सत्ता-समाज के ताने-बाने में शामिल हो। समाजवाद एक पूजा है जिसमें अपने लिए कोई कामना नहीं की जाती। जिसमें बपौती कुछ भी नहीं होती। इसमें जो भी फैसले होते हैं, सामूहिक होते हैं, किसी एक के नहीं। इसकी आत्मा में लोकतंत्र बसता है।—लेकिन सवालों का सिलसिला मेरे जवाब से कहां थमने वाला था। फिर पूछ ही डाला उन्होंने-चलो फटाफट मौजूदा दौर के किसी बड़े समाजवादी का नाम बताओ। यह सवाल कुछ सरल था मेरे लिए-नेताजी हैं ना। उनसे बड़ा कौन समाजवादी होगा। आपके नाम की तो वह माला जपते हैं। आज ही तो दिन में उनके बेटे का शपथग्रहण हुआ है। मुख्यमंत्री बना दिया है। बड़ा ओजस्वी है उनका बेटा। बड़ा ख्याल है उन्हें मौजूदा
पीढ़ी का। लैपटाप-टैबलेट पीसी बांटने जा रहे है छात्रों को। बेरोजगारों को भत्ता देने का एलान किया है। इस बार सोच में पड़ने की बारी में उनकी थी। थोड़ी उलझन के साथ बोले ये लैपटाप क्या होता है। इसमें गेहूं, चावल, दलहन-तिलहन उगते हैं क्या, जो टैबलेट बांटेंगे, वो किस मर्ज के लिए होगी? इस सवाल पर मैं लालूजी की तरह कुछ बिहंस गया-धत्त, मैं भी गजबे बकलोल हूं। यह भूल ही गया कि आपके दौर में तो यह सब होते ही नहीं थे। बड़ी जादुई चीज है, बडे़ काम की चीज है। फेसबुक पर चैट करो, ट्विट करो। वीडियो कांफ्रेंसिंग करो। अरे, आपको तो फेसबुक, ट्विटर और वीडियो कांफ्रेंसिंग भी तो नहीं मालूम होगा। लेकिन भत्ता, लैपटाप और टैबलेट के वादे के साथ नेताजी के पुत्र ने साइकिल चलाकर आपके पुराने साथी नेहरूजी के प्रपौत्र को पीछे धकिया दिया है। और कुछ नहीं तो जेब खर्च तो बेरोजगारों का चल ही जाएगा 1000 रुपये में–अभी इस सवाल को और लंबा खींचते वो नेपथ्य का सफर करते हुए बोल पड़े हमारा भी क्या दौर था, तब रोटी, कपड़ा और मकान के वादे किए जाते थे। शायद अब यह
जरूरतें पूरी हो चुकी होंगी। तभी तो दीगर मुद्दे वजूद में आ गए। शायद तुम्हारे नेताजी की पार्टी में उनके बेटे से सीनियर और काबिल दूसरा कोई और नहीं होगा, तभी तो मुख्यमंत्री बना दिया। एक मेरी जिज्ञासा शांत करो, मोटा-मोटी कितने खर्च आएंगे, वादों को अमली जामा पहनाने में ? जवाब तो देना ही था। तोता अंदाज में रट दिया-खबर पढ़ी थी, यहीं कोई4400 करोड़ रुपये प्रति वर्ष खर्च होंगे। रही बात सीनियर और काबिल होने की तो बाकियों में वो बात कहां। वैसे तो उनके भाई-भतीजे व कुछ और लोग भी हैं, लेकिन पहला हक नेताजी के बाद उनके बेटे का ही तो बनता है। क्योंकि उनसे ज्यादा साइकिल किसी और ने थोड़े ही चलाई है। एक और सवालों का जवाब दे दो मैं चला जाऊंगा, फिर फुर्सत मिलेगी तो आकर पूछूंगा–हां,
तो इतनी भारी-भरकम रकम कहां से लाएंगे, कुबेर का ऐसा कोई खजाना हाथ लग गया है जो खत्म ही नहीं होने वाला। तुम्हारे नेताजी और कांग्रेसियों में फिर क्या फर्क रह गया।-मैं कुछ उकता कर बोल बैठा–उनको किसी खजाने की क्या जरूरत है। हम हैं न, जनता की जेब कुबेर के खजाने से क्या कम है। कभी बिजली, कभी पानी, कभी चुंगी के नाम पर आहिस्ता आहिस्ता हमारी रकम खिसकाते रहेंगे। अच्छा, येयेये—उनकी भूमिका आगे बढ़ती इससे पहले ही मैंने हाथ जोड़ दिया, कल आम बजट है। अखबार में नौकर हूं, जल्दी दफ्तर जाना है। फिर किसी दिन बैठेंगे। शायद सवालों से मेरी उकताहट को भांप कर वह खादी वाला झोला कंधे पर
संभालने लगे–अच्छा चलता हूं। मुझे भी बहुत काम करने हैं। युग बदल गया है। बदले युग के साथ समाजवाद की परिभाषा तो बदलनी होगी। रोटी, कपड़ा और मकान को समाजवाद से हटाना होगा, परिवारवाद की स्वीकार्यता को शामिल करना होगा। मैं जहां रहता हूं, वहां आचार्य नरेंद्र देव, मधु लिमये और जनेश्वर जैसे समाजवादी भी रहते हैं। उनको बताना होगा कि सियासत में हमने अपना कोई वारिस न लाकर कितनी बड़ी गलती की है। हां, जब भी आऊंगा, सवाल तो करुंगा ही करुंगा। इसलिए जवाब के लिए तुम खुद को तैयार रखना। इसी के साथ नींद खुल गई। आपने क्या सोचा? यही न कि मगज में कोई केमिकल लोचा हो गया है, ठीक उसी तरह जैसे लगे रहो मुन्ना भाई में संजय दत्त को बापू नजर आने लगे थे। सही में, मैं सपना देख रहा था जनाब। लेकिन तय कर लिया है, अब अगर वो सपने में आए तो कह दूंगा, माफ कीजिए। ये समाजवाद बड़ी टेढी खीर है। मुझ जैसे आम आदमी के बस की बात नहीं है।
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