अभी 24 अप्रैल को मुझे कोलकाता जाना पड़ा था। पूरा शहर चुनावी शोर में डूबा हुआ था। सबसे पुरजोर नारा था-पोरिबोर्तन आसछे। मुझे जाना था दक्षिण 24 परगना के गरिया। हावड़ा से टैक्सी ली। तकरीबन खुद से बात करते हुए मैंने कहा-इस बार 22 महीने बाद कोलकाता आना हुआ है। इतना भर कहना था कि ड्राइवर टैक्सी के मीटर के साथ चालू हो गया-22 दिन बाद आएंगे तो यहां सबकुछ बदला मिलेगा। ये जो हंसिया-हथौड़ा वाले लाल-लाल झंडे और बैनर दिख रहे हैं न, गायब हो जाएंगे। चारों तरफ जोड़ा फूल ही नजर आएगा। जोड़ा फूल ममता दीदी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस का चुनाव चिहृ है। बात सही भी निकली। ममता दीदी ने वाम मोर्चा की 34 साल पुरानी सत्ता की किलेबंदी को जमींदोज कर दिया। इमरजेंसी के बाद के 77 के चुनावों की याद दिला दी। मंत्री तो मंत्री मुख्यमंत्री बुद्धदेव भटृटाचार्य तक अपनी सीट नहीं बचा सके। लेकिन ममता दीदी की सरकार पश्चिम बंगाल के लिए कितनी शुभ होगी और कितनी अशुभ, यह सवाल प्रासंगिक हो गया है। दो राय नहीं कि औद्योगिकीकरण विकास का सबसे बड़ा अधार है। लेकिन पश्चिम बंगाल में अब औद्योगिकीकरण होने से रहा। उद्योगों को स्थापित करने के लिए भूमि तो चाहिए ही चाहिए। और, भूमि का अधिग्रहण होने से रहा। क्योंकि ममता दीदी जिस नंदीग्राम और सिंगुर के सहारे विधानसभा में कदम रखने जा रही हैं, वैसे सियासी ड्रामे की तैयारी में अब वामदल भी हैं। इसका अंदाजा चुनाव नतीजों के बाद सीपीएम के वरिष्ठ नेता गौतम देव के बयान से लगाया जा सकता है। गौतम देव कहते हैं-देखिए आने वाले दिनों में क्या होता है। ममता बनर्जी भले कहें कि बदोल चाई, बोदला नेई। लेकिन तृणमूल काडर शांत नहीं बैठने वाले। हम भले विपक्ष में बैठेंगे। लेकिन बंगाल में हम फिर सिंगुर और नंदीग्राम जैसा कहीं नहीं होने देंगे। गौतम देव का साफ संकेत था कि कंगाल हो चुके बंगाल में औद्योगिकीकरण की ममता बनर्जी की राह आसान नहीं होगी। अब आते हैं जंगल महल पर। पुराने दौर में कभी शासन का केंद्र रह चुका जंगल मंहल इलाका माओवादियों की गिरफ्त में हैं। सर्वाधिक प्रभावित पश्चिम मेदिनीपुर जिला जंगल महल का ही हिस्सा है। पहला सवाल, माओवादियों की हिमायत करने वाली ममता बनर्जी क्या उनकी मांग के मुताबिक केंद्रीय बलों की वापसी सुनिश्चित करेंगी। इसके बाद क्या माओवादी माकपा काडरों के खिलाफ कार्रवाइयां बंद कर देंगे। इस उम्मीद से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि सैकड़ों निर्दोषों लोगों को मौत के घाट उतार चुके माओवादियों से हथियार डलवाकर उन्हें माफी दे दी जाए। खैर, इस सवाल का जवाब देने वाला वक्त अभी सामने आएगा, लेकिन कुछ देर लगेगी। सूबे में शांति व्यवस्था सबसे बड़ा मुद्दा है। सत्ता से बाहर रहकर तृणमूल कार्यकर्ताओं ने जिस कदर वाम दलों के काडरों को सबक सिखाया है, सत्ता में आने के बाद क्या वे वाकई चुप बैठ जाएंगे। इस हकीकत से ममता बनर्जी भी वाकिफ हैं। चुनाव नतीजे अपने पक्ष में आने के बाद कार्यकर्ताओं से रूबरू होते ही ममता बनर्जी का पहला फरमान या सलाह था, कुछ ऐसा नहीं करना जिससे माहौल बिगड़ जाए। जिस तरह पश्चिम बंगाल में वाम दलों की युवा पीढ़ी क्लबों के जरिए पाढ़ा (अपने क्षेत्र) में राज करती थी, वैसे क्लब तृणमूल कार्यकर्ताओं से भी गुलजार होने लगे हैं। और आखिर में ममता दीदी का गुस्सा। गुस्सा और अपनी जिद पर अड़ जाने के लिए चर्चित ममता बनर्जी से पहला खतरा होगा कांग्रेस को। कांग्रेस के साथ गठबंधन कितने दिनों तक निभ पाएगा, यह न तो कांग्रेस समझ पा रही है, ना खुद ममता बनर्जी को मालूम होगा। इसी को लेकर कांग्रेस पसोपेश में फंसी है कि सरकार में शामिल हो या बाहर से ही गठबंधन धर्म निभाएं। जाहिर हो कि चुनाव के दौरान ममता दीदी दीपा दासमुंशी सरीखे तमाम कांग्रेसियों को बिदका चुकी हैं। अभी सरकार का गठन होने दीजिए, मंत्रिमंडल के विस्तार के बाद के दिनों का इंतजार कीजिए, फिर देखिए ममता दीदी का गुस्सा क्या रंग दिखाता है। बहरहाल पश्चिम बंगाल की जनता ने बहुत विश्वास के साथ प्रदेश की बागडोर ममता दीदी के हाथों सौपी है, तो मुझे भी सफलता की शुभकामना देने में क्या जाता है ? हां, ममता दीदी से एक गुजारिश जरूर है-बंगाल सबका है। वामपंथियों की तरह नान बंगाली बाइरे जा (गैर बंगाली बाहर जाओ) जैसे नारे को अपने शासन के दौरान वजूद में न आने दीजिएगा।
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