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बाबा वेलेंटाइन का सवाल

सर-ए-राह
सर-ए-राह
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roseआज दौरान भोर मेरे सपने में बाबा वेलेंटाइन आए थे। मुझे ढेर सारा आशीर्वाद दिया। बता रहे थे, उनका ‘डे’ आने वाला है। अंतर्ध्‍यान होने से पहले एक गुलाब देते गए। साथ में एक सवाल भी करते गए-यह गुलाब किसको दोगे बच्‍चा ? अगर नहीं दिया तो जमाने की दौड़ में पिछड़ा हुआ मान लिये जाओगे। जाहिर है कि आंख खुली तो सपना गायब था, गुलाब गायब था। लेकिन बाबा वेलेंटाइन का सवाल जिंदा था- यह गुलाब किसको दोगे ? जवाब की तलाश अब भी जारी है। कई चेहरे घूम रहे हैं आंखों के सामने। लेकिन डर भी लग रहा है।
इस डर के पीछे एक वाकया है। करीब डेढ़ दशक पहले की बात है। बाबा वेलेंटाइन के ‘डे’ का बुखार तब नया-नया चढ़ना शुरू किया था। एक कालेज में एक बचवा ने एक बचिया को गुलाब देकर कह दिया-हैपी वेलेंटाइन डे। बचिया को न जाने क्‍या सूझा, तड़ से गाल पर थप्‍प‍ड़ जड़ दिया-हुंह, बडे़ आए हैं गुलाब देने। अपना मुंह नहीं देखा है आईने में। बेचारा बचवा भरी भीड़ में थप्‍पड़ खाने से इतना आहत हुआ कि अपने क्‍लासरूम में खुद को बंद कर जहर खा लिया। दरवाजा तोड़-निकाल कर उसे अस्‍पताल पहुंचाया गया, जैसे-तैसे जान बची। कालेज में बवाल हो गया। पुलिस आई, नवसीखिया एएसपी ने लाठीचार्ज करवा दिया, कई फूट गए। कवरेज में मैं भी गया था, स्‍टूडेंट समझकर पुलिस वालों ने मुझे भी दौड़ाया। भला हो, एक सीओ का जिसने पहचान लिया–अरेरे पत्रकार हैं भाई। इस तरह लाठी खाने से बमुश्किल बचा। इस प्रसंग के साथ फिर सवाल पुरअसर हो जाता है कि गुलाब किसको दूंगा। मूंछ-दाढ़ी पर सफेदी फिरने लगी है, ऐसे में किसी को गुलाब दिया तो गाल लाल होने का खतरा प्रबल रहेगा। अगर धर्मपत्‍नी को दिया तो उन्‍हें दुनिया का आठवां नहीं, नौवां-दसवां अजूबा लगेगा। क्‍योंकि 23 सालों के दौरान कभी ऐसा हुआ ही नहीं। कोई प्रेमिका गढ़ने का चांस नहीं बनता, क्‍योंकि अब 14 फरवरी दूर ही कितनी है? सुना है इस काम में महीनों-साल लगते हैं। अंकल कह कर रिजेक्‍ट क‍र दिए जाने का ही चांस ज्‍यादा रहेगा। किसी पुरुष को दिया तो बड़ी बात नहीं कि वह अभिषेक बच्‍चन और जॉन अब्राहम जैसा ‘दोस्‍ताना’ देखने लगे। कोई करन जौहर के रूप में देखने लगे या फिर शाहरुख खान के रूप में। यानी दोहरी मुसीबत। अरे हां, एक बात का ख्‍याल तो आया ही नहीं था। सुना है उस दिन एक-एक गुलाब की कीमत डेढ़-दो सौ रुपये से भी ज्‍यादा तक हो जाती है, फिर इस कड़की के दौर में डेढ़-दौ सौ रुपये खर्च भी करो और  थप्‍पड़ खाने का भी खतरा! अगर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद वालों के हत्‍थे चढ़ गया, तो गाल लाल होने से बढकर चेहरे पर स्‍याही  भी पुत सकती है। ऐसे में सवाल कायम है, क्‍या करुं-क्‍या ना करुं ? बड़ी गंभीर समस्‍या है। सवाल यहां बाबा वेलेंटाइन के सवाल का है। संत की बात का अनादर कैसे किया जाए। हर गुणा-भाग के बाद सवाल सिर उठा देता है-गुलाब किसको दूंगा, किसको दूंगा?

जवाब नहीं सूझने पर हार मानने के सिवा विकल्‍प भी क्‍या हो सकता है। हो सके तो आप ही कोई जवाब सुझा दीजिए। अगर कोई सुझाव नहीं सूझे तो फिर जुर्माने के तौर पर आप ही डेढ़-दो सौ रुपये खर्च कर एक गुलाब हमें भेंटकर दीजिएगा। बोल दीजिएगा-हैपी वेलेंटाइन डे। खुशफहमी में जी लूंगा कि जमाने की दौड़ में मैं भी कायम हूं। और किसी का भला हो या ना हो, फूल वाले का तो कुछ भला हो ही जाएगा। एक बात और न तो मैं थप्‍पड़ मारने वाला हूं और ना ही ‘दोस्‍ताना’ मानूंगा। एक विकल्‍प और, ऐसा भी कर सकते हैं कि आप डेढ़-दो सौ रुपये मुझे दान कर दीजिए, गुलाब खरीदने के लिए। तब मैं भी अपना गाल लाल कराने का खतरा उठा सकता हूं। अगर आपने यह अहसान कर दिया, तो आपकी जय हो। नहीं तो बाबा वेलेंटाइन के सवाल की जय हो, क्‍योंकि सवाल अब भी कायम है-मैं गुलाब किसको दूंगा ?
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