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प्‍यार तो होना ही था

सर-ए-राह
सर-ए-राह
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प्‍यार तो होना ही था। कब तक खुद को धोखा देते रहते। डेढ़ दशक तक किस कदर छले गए,इसका अंदाजा पांच साल के नए अहसास ने दिया। लिहाजा बिहार के जनता जनार्दन का दिल विकास पर आ ही गया। नतीजा सामने है-विजयश्री ने नीतीश कुमार का वरण किया। समोसे में आलू तो बकरार है। लेकिन लालूजी सियासत से बेवफा सनम की तरह खारिज हो गए। पासवान साहब भी पानी मांग गए। कांग्रेस के युवराज राहुल भइया को भी पता लग गया कि वह कितने पानी में हैं। एक बार का वाकया है, मैं अपने गांव से मामा के गांव चला। बाइक से। जाना था बिहार में छपरा जिले के गांव धोबाही। धोबाही अमनौर से कुछ किलोमीटर उत्‍तर में पड़ता है। तब लालूजी का राज था। उत्‍तर प्रदेश की सीमा तक तो सब ठीक रहा। सरयूजी पर बने पुल को पार करते ही जैसे मांझी पहुंचा, बाइक हैंडल छुड़ा कर पटखनी देने की जुगाड़ में जुट गई। सड़क ऐसे उछालने लगी, जैसे हम किसी नन्‍हें बबुआ को हवा में उछालते हैं। छपरा के आगे बढ़ा तो लगने लगा जैसे किसी पर्वतीय क्षेत्र से गुजर रहे हैं। बाइक माथभर नीचे जाती तो कभी ऊपर। सड़क कहीं-कहीं ही दो-चार हाथ साबुत मिलती। बाकी गड्ढे ही गड्ढे। खैर, जैसे-तैसे मामा के दरवाजे लग ही गया। चला था सुबह में और करीब साठ किलोमीटर का फासला तय करने में सांझ हो गई। बाइक स्‍टैंड करने के बाद अपने छोटका मामा के पैर छुए तो उन्‍होंने पूछा-”के हवअ बबुआ।” अरे मामा, हम हईं। पहचनल ना!!! मेरे इस जवाब के जवाब में मामा ने आईना मंगा कर थमा दिया। मामा का मुझे ना पहचानना स्‍वाभाविक था। ऊपर से नीचे तक धूल ही धूल। आईना बता रहा था कि मैं ठीक उसी हालत में पहुंच गया हूं, जैसे कोई गदहा माटी में अभी-अभी लोटियाकर उठा हो। धूल की मोटी परत जमी हुई थी। गमछे से झाड़ते हुए मैंने कहा-मामा, ये सब आप लोगों की ही मेहरबानी है। और बनाइए लालूजी को मुख्‍यमंत्री। मामा का मिजाज तो जैसे दाग द फायर हो गया-ये तुम्‍हारे चंद्रशेखर की मेहरबानी है। अच्‍छे खासे रामसुंदर दास मुख्‍यमंत्री बन रहे थे, ऐन वक्‍त पर उनका पत्‍ता काटकर लालू को मुख्‍यमंत्री बनवा दिया। अब वही लालू मंच से खड़ा होकर हम राजपूतन को गरियाता है। मामा के समर्थन में कई लोग कांव-कांव कर मेरे ऊपर चढ़ गए। मैं ठेठ बलियाटी का फर्ज निभाता रहा। चंद्रशेखर की का बचाव करते-करते पानी मांगता रहा। इतने दूर का सफर करने के बाद पहुंचता था, कहां गुड़-पानी से अपनी प्‍यास बुझाता, सियासी बहस में उलझकर हलक सूख गया। बिहार की वह दुगर्ति जिसने भी देखी है, अबके चुनाव नतीजे उनके लिए चौकाने वाले नहीं लगेंगे। लालूजी से मिले जख्‍म दर जख्‍म डेढ़ दशक में नासूर बन गए थे। लाठी-गोली खाना और भैंस की सवारी किस्‍मत बन गई थी। पांच साल नीतीश कुमार ने विकास का महरम लगाया तब जाकर लोगों को अहसास हुआ कि दर्द क्‍या होता है, दवा क्‍या होती है। और, इसी का सिला हालिया विधानसभा चुनाव के नतीजों में देखने को मिला है। बहरहाल, नीतीशजी को इस कामयाबी पर बधाई। लेकिन उनके नाम एक छोटी चिट्ठी के साथ- ——— हे नीतीशजी कर्पूरी ठाकुर के बाद पहली बार बिहार की जनता ने आपमें माटी से जुडे़ एक मुख्‍यमंत्री की तस्‍वीर देखी है। लालूजी के राज में बदरंग हो चुकी बिहार की तस्‍वीर को आपने पांच साल में डेंट-पेंटकर कामचलाऊ तो बना दिया है। लेकिन इससे ही बात नहीं बनने वाली। जुरूरत है फुल प्‍लास्टिक सर्जरी की। बिहार से दिल्‍ली और पंजाब जाने वाली ट्रेनों में ठूसमठूस भीड़ कम करने के लिए भी अब कुछ कीजिए। बेहतर इलाज के लिए लोग बिहार से दिल्‍ली-एम्‍स क्‍यों जाएं। पटना, मुजफ्फरपुर, दरभंगा, भागलपुर और छपरा में ही जेएनयू और डीयू की झलक क्‍यों न मिले। लहरिया सराय, अररिया, सहरसा, आरा और भोजपुर से पटना बाइरोड चलें तो दिल्‍ली-टू चंडीगढ़ और जयपुर लगे। बिहार के शब्‍दकोश से बाहुबली शब्‍द की विदाई हो। पिस्‍टल कमर से निकलकर बक्‍सा में धरा जाए। जनता मुकम्‍मल तरीके से चैन की सांस ले। जय हो।

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