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अथ ठेकुआ कथा

सर-ए-राह
सर-ए-राह
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thekua-150अभी अभी फेसबुक पर एक सवाल गिरा था कि छठ के प्रसाद में ठेकुआ ही क्‍यों बनता है। जवाब का जिम्‍मा मेरे ऊपर आ गया। मैं तत्‍काल अपने मस्तिष्‍क जी की शरण में गया। मदद की गुहार लगाई। क्षणिक अनुसंधान का नतीजा पेश है।खुद की सुविधा का खयाल रखना मानवीय प्रवृति है। ठेकुआ भी उसी की देन है। पहले हम पूरबियों के पुरनिया कमाई के लिए बंगाल और असम जाते थे। आते थे दीवाली से पहले और जाते थे छठ के तत्‍काल बाद। दो-तीन दिन का सफर। पहुंचने के बाद एक दिन रीढ़ सीधे करने में लग जाता था। तब आईआरसीटीसी की केटरिंग व्‍यवस्‍था भी नहीं होती थीं। इसलिए घर से कम से कम तीन-चार दिन का खाना लेकर चलना पड़ता था। तब के पाक शास्‍त्री इस नतीजे पर पहुंचे कि पानी कम होगा और ज्‍यादा तला होगा तो खाना खराब नहीं होगा। यहीं से ठेकुआ का आविष्‍कार हुआ। कम पानी में आटा वैसे ही ऐंठा रहता है। गोल आकार देने के लिए आटे को खूब ठोकना पड़ता था। इसी कारण ठोकने से ठोकुआ और फिर ठेकुआ हो गया। छठ में ठेकुआ इसलिए शामिल किया गया, क्‍योंकि इस पूजा के प्रसाद को बारह-चौदह घंटे रखना पड़ता है। दूसरा कोई अन्‍न वाला प्रसाद तो खाने लायक नहीं बचेगा। दूसरी बात यह कि छठ के प्रसाद का ठेकुआ  परदेसियों को गांव से लेकर कलकत्‍ता (अब कोलकाता) और गुवाहाटी तक तृप्ति प्रदान करता था। 
अगर आप मेरे इस ठेकुआ पीएचडी से सहमत नहीं हैं तो तत्‍काल अपनी आपत्ति दर्ज कराए। अगर सहमत हैं तो कमेंट के जरिए मान्‍यता प्रदान करें।

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