हमार माई
मां, माम, मम्मी, मामोनी, अम्मी, अम्मा, ईजा, आई, ईया, माय या माई। ममता का सागर तो यहीं लहराता है। मैं तो माई कहता हूं, हमार माई। छह माह से शायद कुछ अधिक हो रहा है, जब मैं गांव गया था। छठ पूजा का समय था। तमाम परेदेसी आए होते हैं। गांव जाने पर बैठकी हो ही जाती है। जितने दिन रहे, बैठकी जमती रही। सुबह से मुंह में दतुअन दबाए, कभी घिसते-कभी चबाते दिन बांसभर ऊपर चढ़ जाता। दतुअन बित्ता से घटकर अंगुरी के नीचे आ जाता। लेकिन बैठकी खत्म होने का नाम नहीं लेती। तब तक माई की आवाज सुनाई पड़ जाती, दिनभर मुंहे धोवत रहब कि खइबो करब। माई की झल्लाहट को थोड़ा शांत करते हुए कह दिया-तू खइला के चिंता काहे करतारू, खाइ लेब नू। माई का जवाब था–हम ना चिंता करब तअ के करी। बबुआ रे, माई निहारे पोटरी, मउगी निहारे मोटरी। मतलब-जब बेटा बाहर से आता है तो माई देखती है कि बेटा खाया है या नहीं और पत्नी गठरी ठठोलती है कि मेरे लिए कुछ लाया है या नहीं। खुद करीब तीन दिन के छोटे-बड़े उपवास के बावजूद माई का सिर्फ एक एजेंडा रहा, मैंने खाया या नहीं। सुबह-दोपहर का खाना खाने के बाद जैसे ही शाम झलकती, माई का एक ही सवाल होता-ए बबुआ कुछ खइबे। यही आलम रात का, आठ बजा नहीं कि माई का कोई धावक, पहुंच जाता–चलअ, इया बोलवली हा, खाएके।
बचपन से तो यही करती आ रही है माई। किशोरावस्था तक दो ही बातों के लिए मार पड़ती। या तो नहीं खाने के लिए या फिर नहीं पढ़ने के लिए। जिस दिन खाना-पढ़ना वक्त से होता, मजाल क्या कि कोई चूं भी कस दे मेरे खिलाफ। मेरी उम्र के पायदान ऊंचे होते गए। लेकिन माई की फिक्र अब भी जस की तस है। माई की खटिया पर लोटपोट का मजा ही कुछ और है। एक शाम आंगन में माई की खटिया पर लेटते ही आंख लग गई। झपकी टूटी तो देखा माई, पैर में सरसो का तेल मल रही थी। मैंने कहा, छोड़ दे माई। डांटकर बोलीं-चुप रह, दिनभर खेत बधार-बाजार घूमल बाड़अ, थाकि गइल होइब। धूमधड़ाके के साथ छठ पूजा संपन्न हुई। दिल्ली वापसी का दिन भी आ गया। रात में सवा नौ बजे सेनानी पकड़नी थी। कम दिखती आंखों से दिए की लौ में मुझे निहारने की कोशिश करती हुई माई दुअरा पर हनुमानजी के मंदिर के सामने कटोरी में दही-गुड़ लेकर खड़ी थीं। हनुमान जी को प्रणाम कर मैंने माई के पैर छुए और भरोसा दिलाया–चिंता मतकर माई, जल्दी आइब। माई ने डबडबाई आंखों के साथ आशीर्वाद दिया-”हनुमत के बल लेके हंसत-खेलत जा, हंसत-खेलत वापस अईह। बेटा ले बढ़ के कवनो धन ना हअ, लेकिन पेट जवन ना करावे।”
जहां भी रहता हूं, प्रतिदिन सोकर उठने के बाद मेरा पहला काम होता है माई को फोन करने का, बगैर नागा किए। रात की नौकरी, उठने में देर हो ही जाती है। माई गोड़ लागतनी, का जवाब खुश रहअ-बनल रहअ से मिलता है। साथ में एक सवाल भी होता है नियमित रूप से, अबहीं उठतारअ। कब नहइब-खइब ? जिस दिन देर हो जाती है, कह देता हूं। अरे ना माई, बहुत देर हो गईल उठला। चाय-वाय पी लेले बानी, अब नहाके-खाए के तैयारी बा। माई को क्या मालूम कि देरी के चक्कर में बबुआ आज निखंड ही दफ़्तर निकल रहे हैं। सही बात बता दें तो माई भी भूखे दिन गुजार देंगी। माई से कह कर आया था, जल्दीये आइब। छह महीने से ज्यादा गुजर गया। मुझे मालूम है माई रोज यही गुड़ा-भाग लगा रही होंगी कि बबुआ को दिल्ली गए कितने दिन हो गए, क्योंकि उन्हें मेरे आने-जाने की तारीखें याद रहती हैं। वह यही सोच रही होंगी, जल्दी का मतलब छह महीना-सालभर होता है क्या ?
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