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बुद्धिजीवी क्‍या होता है ?

सर-ए-राह
सर-ए-राह
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अभी फेसबुक पर एक सवाल उठा था-क्‍या हमारे अखबारों और चैनलों में आदिवासी
संपादक और पत्रकार होते तो क्‍या मी‍डिया इसी तरह माओवादियों को कुचल
डालने, उनका सफाया करने और उन इलाकों में वायु सेना के इस्‍तेमाल की मांग
करता ? इस सवाल के जवाब में मेरा भी एक सवाल है। एक साथ 76 जवानों की जान
ले लेने वाले नक्‍सलियों को क्‍यों नहीं कश्‍मीरी आतंकियों के बराबर रखा
जाए। किसी भी आतंकी संगठन की एक कार्रवाई में इतनी बढ़ी संख्‍या में जवान
नहीं मारे गए। बंदूक के बल पर नक्‍सली देश की बागडोर छीनना चाहते हैं।
फिर किस हक से उन्‍हें हम अपना कहते हैं। सीधे-सीधे राष्‍ट्र के विरुद्ध
युद्ध छेड़ने का मामला बनता है। देशद्रोह का मामला बनता है। देशद्रोही
भाई हो या बेटा, वह सिर्फ देशद्रोही होता है। देश का दुश्‍मन होता है। और
देश का दुश्‍मन जब तक घुटने न टेक दे, उसके साथ सिर्फ जंग का रिश्‍ता
होता है। नक्‍सलियों के हिमायतियों में कुछ ऐसे भी लोगों की फौज शामिल है
जिन्‍हें बुद्धिजीवी कहा जाता है। मेरा यह भी सवाल है कि बुद्धिजीवी
क्‍या होता है। मेरी समझ से स्‍वांत: सुखाय गढ़ा गया एक छद्म किरदार है।
बुद्धि की दो ही अवस्‍था होती है। एक सदबु‍द्धि तो दूसरी दुर्बुद्धि। और
देश की कानून-व्‍यवस्‍था को चुनौती देने वालों की हिमायत को सदबुद्धि तो
नहीं कहा जा सकता है। बात दरअसल दाढ़ी में आग की है। जब अपनी दाढ़ी में
आग लगती है तो उसको बुझाने में सारे में फलसफे  बेमानी हो जाते हैं।
दंतेवाड़ा में किसी  भी पत्रकार या तथाकथित बुद्धिजीवी के परिवार का कोई
बेटा-भाई-भतीजा शहीद नहीं हुआ  है। सिर्फ उत्‍तर प्रदेश में 42 जवानों के
शव पहुंचे थे। किसी ने शहीदों के परिवारों के बारे में सोचा
क्‍या, उनकी राय जानी कि वे किस तरह की कार्रवाई चाहते हैं। नक्‍सली
समस्‍या देश की दाढ़ी में आग है। इस आग को बुझाने के लिए हर तरह की
कार्रवाई जायज है। किसी खबर को लेकर कोई शख्‍स किसी पत्रकार को धुन देता
है तो इस कदर हायतौबा मच जाती है, जैसे देश के संविधान पर सबसे बड़ा हमला
हो गया है। क्‍यों नहीं भावावेश समझ कर चुप हो जाया जाता। दरअसल फेसबुक
पर उठा सवाल मीडिया की भूमिका के अतिरेक के कारण है।  मीडिया खुद को
वाचडाग के बजाए अदालत समझने की कोशिश करना  लगा है। आदिवासी इलाकों में
अगर विकास नहीं है तो लोकतांत्रिक से तरीके से क्‍यों नहीं विरोध करते।
क्‍यों नहीं जंतर-मंतर पर बैठकर आमरण अनशन करते। दिल्‍ली, रांची और
कोलकाता क्‍यों नहीं जाम कर देते। क्‍यों नहीं अपने मताधिकार का प्रयोग
कर मनगण की सरकार चुनते। सरकार वार्ता के लिए न्‍यौता दर न्‍यौता दिये जा
रही है। नक्‍सली जवाब में लाशें बिछा रहे हैं। विकास जेब में रखा पांच रुपये
का कोई सिक्‍का तो नहीं है, जिससे रोते बच्‍चे को दे दिया जाए। तथा‍कथित
बुद्धिजीवी क्‍यों नहीं नक्‍सलियों को वार्ता की मेज पर ला रहे हैं।
बेहतर होगा कि कुछ सकारात्‍मक करें या फिर चिदंबरम को अपनी ड्यूटी पूरी
करने दें।

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