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न जाने सुरमे की तासीर तेजाबी कैसे हो गई

सर-ए-राह
सर-ए-राह
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बरेली! जिसे लाखों लोग बरेली शरीफ भी कहा करते हैं। झुमका गिरा रे—, वाली बरेली। जहां का सुरमा आंखों को सुकून देने के लिए जाना जाता है। लेकिन इन दिनों न जाने क्‍यों सुरमे की तासीर तेजाबी हो गई है। यहां के लोगों की आंखों में सुकून की जगह खून उतर आया है। दंगों के दावानल में झुलस रही है बरेली। सितंबर, 1989 में मुझ जैसे खानाबदोस को भी बरेली ने गले लगाया था। छोटा  शहर, जीता शहर-जागता शहर। रात-बिरात जिधर भी निकल जाओ, पूरी बेफिक्री। कहीं खौफ की वजह नजर नहीं आती। सिविल लाइंस हो या सिकलापुर, किला हो या शहदाना-श्‍यामगंज। कैंट हो या पीलीभीत बाईपास। बिल्‍कुल अपना घर-अपने मुहल्‍ले जैसा। हमारा शुरुआती ठिकाना रहा कालीबाड़ी का बट्टू लाला चौक। टन्‍न्‍न्‍न, टन्‍न्‍न्‍न—ब्रह्ममुर्हूत में कालीमंदिर की घंटियां सहज ही आत्‍मा पवित्र कर जाया करतीं। आजमनगर से आती फजिर की अजान भी अकीदे से तरबतर कर देती। कभी कभार पड़ोसी सुनील अग्रवाल भोर में ही आवाज लगा देते, शाखा में जाने के लिए। गुरु दक्षिणा जैसे कार्यक्रमों में लेकर भी जाते। सावन चढ़ते ही आधी रात से ही धोपेश्‍वरनाथ हों या फिर अलखनाथ, मंदिरों पर सैकड़ों-हजारों की भीड़। कैंट जाने वाली सड़क पर लोगों का रेला होता। आलाहजरत के उर्स पर दुनियाभर से आए जायरीनों का सैलाब, लाखों में। भाईचारा बांटते खानकाहे नियाजिया में दीनी जलसों के साथ सूफियाना महफिलों में सबकी शिरकत। वक्‍त के साथ ठिकाना बदला और हम आ गए कालीबाड़ी से सिविल लाइंस, लालकोठी। आवास-विकास के बीचोबीच की लालकोठी। इसके चारों तरफ मुकम्‍मल हिंदुस्‍तान। मारवाह साहब, हनी-रुचिन मैसी, गुलशन नंदा, मेरे दोस्‍त अफजल मियां, जिन्‍हें हम प्‍यार से मम्‍मन बुलाते। ह‍ारिस-यासिर, राजीव खुराना, इकबाल जिसकी अम्‍मी को मैं भी अम्‍मी कह कर बुलाता। उसकी मौसी को मौसी। तुलसी पार्क सुबह-दोपहर-शाम सबका बराबर हुआ करता। ईद-बकरीद पर एक घर के बाद दूसरे घर–सिवइयां-बि‍रयानी खाते-खाते पेट का बाजा बज जाता। जब कभी-कहीं अपनी मंडली बैठती तो एक बात जरूर चर्चा में शामिल हो जाया करती-बरेली रहने लायक शहर है। साथ में एक मशविरा भी अनिवार्य रूप से मुझे मिल जाया करता, यार तुम भी अब यहीं सेटल हो जाओ। हर बार यह मशविरा मानने को दिल मचलता। हमारे कई सीनियर्स-जूनियर्स ने यहां अपना आसियाना बना भी लिया। लेकिन हालात, यूं कहिए कि दुर्भाग्‍य से मुझ फकीर का डेरा बरेली से उठ गया। खुद को कोसते-कोसते, मैं दिल्‍ली चला आया। ऐसा नहीं था कि सोलह सालों के दरम्‍यान नागवारियां-दुश्‍वारियां नहीं गुजरीं। देश के बिगड़े हालात के साथ शहर के हालात भी बिगड़े और दो-चार दिन में संभल भी गए। लेकिन इन दिनों बरेली से जो खबर आ रही है, दिल दुखा रही है। मन में बैठी इस शहर की पूरी तस्‍वीर बिखर रही है, सैकड़ों साल पुराने भोजपत्र की तरह। पूरे 12 दिन से यह शहर कर्फ्यू की गिरफ्त में है। अभी न जाने कितने दिन और रहेगा कर्फ्यू। लोग घ्‍ारों में कैद हैं। जेल से भी बदतरी। दिनभर की मजदूरी तलाशने के लिए श्‍यामगंज में सुबह-सुबह कतार लगाकर बैठने वाले सैकड़ों मजदूरों का इनदिनों क्‍या हो रहा होगा, इसके बारे में शायद ही किसी को फिक्र हो रही होगी। ठेला-रेहड़ी, दुकान-बाजार सब बंद। रोजमर्रा की जरूरतों की चीजों के लिए तरसते लोग। पड़ोस में धू-धू उठती लपटों को देख, न जाने कब अपनी बारी आ जाए जैसी बातें सोच कर लोगों का कलेजा  मुंह में आ रहा है। ऐसे हालात के बावजूद गंगा-जमुनी तहजीब की बातें करने वाले लोग परिदृश्‍य से गायब हैं। जो कभी सबके कहे जाते थे, वह खास के लिए धरने दे रहे हैं। खुद को अमन का हिमायती बताते नहीं थकने वाले मस्जिदों की जगह सड़क पर नमाज पढ़वा रहे हैं। दो राय नहीं, कर्फ्यू का वक्‍फा जितना लंबा खिचेगा, जख्‍म और गहराएंगे। खबर पक्‍की है, शहर को आग में झोंकने वाले लोग यहां के नहीं थे। अगर इस शहर के होते तो एक दर्द होता सदियों पुराने ताने-बाने के टूटने का और उनके कदम फसाद से पहले ही थम जाते। लेकिन इसमें भी कोई दो राय नहीं कि जो अब हो रहा है, उससे वह लोग अपना पल्‍ला नहीं झाड़ सकते, जो खुद को जिम्‍मेदार शहरी कहा करते हैं और रोज किसी न किसी बहाने अखबारों में उनकी तस्‍वीरें जगह पा जाया करती हैं। इसके साथ ही यह सोचने को बार-बार मजबूर हो रहा हूं, अच्‍छा हुआ बरेली से अपना डेरा उठ गया। क्‍योंकि अब पहले जैसी नहीं रह गई बरेली—-

 

मेरा दर्द

यह शाख थी कभी बहारों का बसेरा, बुल‍बुलों का डेरा

गमगमाते गीत-गजल, नात-नग्‍मे

वक्‍त के साथ लचकाते-झुलाते

कभी पुरवा, कभी पछुआ के झोंके

न जाने कहां से आया एक बवंडर

चटका गया इस शाख को, चट से…

 

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