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अभी हमने चार दिन पहले कहीं पढ़ा था….रंग में भंग। पता नहीं जिसने पहली बार रंग में भंग लिखा होगा, उसका आशय क्या रहा होगा। भांग वाला भंग या फिर कुछ और। लेकिन मेरी समझ में अब ऐसा लिखना शायद बेमानी है। रंग में दारू लिखना ज्यादा लाजिमी होगा। मेरी इस सोच को आप चाहे जो नाम दें। लेकिन मैं इसे अपना दर्द ही कहूंगा। दर्द हमारी गंवई होली के लुट जाने का। इस बार होली पर मैं गांव नहीं गया। लेकिन फोन पर अपने संगी-संगाति से होली का हाल लेना नहीं भूला। हाल जो सुनने को मिला, पिछले दस-पंद्रह सालों से जुदा नहीं था। …भइया, पाउच के पीके दखिन टोला मारि हो गइल। कुछ लोग अस्पताल गइले तो कई थाने। अहिरान पट्टी में गमी बा, एहसे अउर साल से बवाल कुछ कम बा।
जब से पाउच में पैक दारू गांव में घुसी, होली की खुशियों में जैसे जहर घुल गई। मुझे याद है बचपन के दिन, होली के पांच-दस दिन पहले से गांव बहरवासुओं से आबाद हो जाता था। हम बच्चे आलू के दो टुकड़े कर ठप्पे बनाते, उस पर राम लिखते, उसे रंग में डुबोते फिर भौजाइयों की पीठ पर ठप्प्प्प, छाप बना देते। हाथ तनिक जोर से पड़ता तो भौजाइयां गलियाती और हम फरार। नौजवान, बड़े-बुर्जुग रात में किसी न किसी के दरवाजे या किसी मंदिर पर बैठकी लगाते। होली की सुबह के साथ रंगों की बौछार। पीतल की बड़ी-बड़ी पिचकारियों से, लोटा से, बाल्टी से। इसी बीच रंग-गुलाल में पुते गुरु घराना के लोग, पुरोहित आते। खाना खाकर जाते। गांव के मंदिरों को छाना जाता। इसके बाद हम भी मुंह में पुआ दबाए, हथेली पर सूखते रंग को गीला करते सरपट भागते। होली है………। दोपहर तक नहा-धोकर कलकतिया कुर्ता-पजामे में लकदक तैयार। हर बड़े बुजुर्ग के चरणों पर अबीर रखते, आशीर्वाद लेते। हर दरवाजे पर गरी, छुहारे और किशमिश कटी रखी होती थी, एक मुट्ठी निकालते और दूसरे दरवाजे पहुंच जाते। शिवजी के मंदिर से फगुआ गाने की शुरूआत होती और फिर एक के बाद एक दरवाजे पर बढ़ती टोली….
…आज बरंहपुर धूम मचो है
जहां बिराजे बरमेसर नाथ बाबा
बरमेसर खेले फाग आहे लाला
बरमेसर खेले फाग
आजु बरंहपुर धूम मचो है
बरमेसर खेले फाग
…खेल ना होरी हो, खेल ना होरी
अइले-अइले परदेशिया खेल ना होरी
जब परदेसिया सेजरिया पर अइले
…जो न हरि जी से शस्त्र गहाऊं आज समर भूमि में
गंगा सुत न कहाऊं आज समर भूमि में
…बाबू कुंवर सिंह तेगवा बहादुर
बंगला में उड़े ला अबीर
आहो लाला बांगला में उड़े ला अबीर..
आखिरी दरवाजे पर फाग का समापन और चइता की शुरूआत….आजु चइत हम गाइब इ रामा, ऐही ठइयां..
लेकिन अब!!!!भला पाउच से पुआ क्या मेल। जुमाद्दीन मियां खस्सी मारने लगे हैं। गुरु-पुरोहित खुदै किसी न किसी बहाने कन्नी काट लेते हैं। गांव के चौक पर लाउडस्पीकर पर….हम हऊ रंगब….घोड़ा पछाड़ डांस, कुर्ता फाड़ होली और फिर बवाल। फिर अस्पताल और पुलिस थाना।
होली की गुजरती रात के साथ मैं भी मन-मसोस कर खुद को समझाता रहा-चलो अच्छा हुआ गांव नहीं गया, क्या पता कौन उलझ जाता। बात बर्दाश्त नहीं होती और खामख्वाह का बवाल हो जाता। उससे तो बेहतर दिल्ली की ही होली रही। बंद कमरे में…।
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