तीन बेफिक्र!
औरों की तो नहीं जानता। लेकिन मैं बेफिक्र हूं। शायद शरद पवार और प्रणब मुखर्जी भी। दाल दो सौ रुपये किलो बिकती है तो बिके। मेरे पास दाल का विकल्प है और शरद पवार के पास दाल खरीदने के लिए पैसे की कोई कमी नहीं। नेताजी को चीनी नहीं शुगर फ्री गोली चाहिए। इसलिए चीनी से भी बेफिक्री। देश में गन्ने की पैदावार में 40 फीसदी भागीदारी महाराष्ट्र की होती है। हो सकता है कि चीनी की बढ़ती कीमतों के बहाने शरद पवार अपने मराठा किसानों का कुछ भला करने की जुगत सोच रहे हों। अब आप पूछ सकते हैं कि मेरे पास दाल का भला क्या विकल्प है ? तो सुन-जान लीजिए। नए साल के साथ जाड़ा चरम पर आया तो साप्ताहिक छुट्टी की शाम मैं झोला उठाए दिल्ली के मयूर विहार फेज-1 में एल्हकान के कोने पर पहुंच गया-रोहू कैसे है भइया। जवाब मिला 80 रुपये किलो। परंपरागत मोलभाव कर बैठा-कुछ कम करो यार। जवाब में नसीहत थी-दाल खरीदने जाओगे भाईसाब तो समझ में आ जाएगा मछली महंगी है या सस्ती। मैने चुपचाप तीन मछली उठाई, छह सौ ग्राम की कीमत चुकाई और झोला लटकाए वापस। मुझे विकल्प मिल गया था। दाल के बदले मछली। मुझे ही क्यों, प्रणब दा को भी। बंगाली रान्ना घर ( किचन) में दाल कुकर में जाने को तरसती है। एक पीस माछ और ढेर सारा माछेर झोल किसी भी बाबू मोशाय की लंबी डकार के लिए काफी होती है। कोई बड़ी बात नहीं कि दाल की कीमतों में वृद्धि के पीछे विदेशी ताकतों का हाथ हो, जैसा कि अक्सर लाइलाज समस्याओं के मामले में होता है। दाल-सब्जी की कीमतें पहुंच से बाहर हो जाएंगी तो केंटुकी फ्राइड चिकेन की शरण में जाने वालों की तादाद बढ़ेगी। गरीब की दाल पर हमला तो खेसारी के जमाने से है। जीरा-लहसुन से छौक कर क्या चटक दाल हुआ करती थी खेसरी की। सरकार ने फैला दिया–गठिया होता है, घेंघा होता, और न जाने क्या-क्या। खेसारी पर पाबंदी भी लगा दी गई और अब उन्मूलन। यह तो रही दाल की बात। मकई यानी मक्का का भी बुरा हाल होने वाला है। मकइया रे तोर गुन गवलो ना जाला, भात करे फटर-फटर—-। मकई का भात, भूजा और सत्तू हम पुरबियों की कमजोरी हुआ करती थी कभी। एकदम समाजवादी पसंद। क्या अमीर और क्या गरीब। सबकी थाली और धोकरी में पहुंचता था मकई। धोकरी यानी अंगोछा का छोर बांध कर बनाई गई झोली, जिसमें मकई का भूजा रखकर रोज सांझ के वक्त फंकियाते गांव में घूमा करते थे। अब भात, भूजा और सत्तू की जगह लेता जा रहा है पापकार्न, स्टीमकार्न और कार्नफ्लेक्स। डेढ़ साल पहले जब डेंगू के हौवे ने स्वास्थ्य विभाग की हवा निकाली तो महंगे अस्पतालों की पूछ बढ़ गई थी। मेरी एक रिश्तेदार भी चपेट में आईं। फोर्टिस में भर्ती हुईं। देखने मैं भी पहुंचा। ज्यादा भीड़भाड़ की इजाजत नहीं थी, सो कैम्पस में टहलने लगा। साथ में उनके कार ड्राइवर सरदार बलवंत सिंह मारवाह भी थे। टहलते-टहलते स्टीमकार्न के स्टाल पर पहुंचे। पहले कभी खाया नहीं था। सोचा-देखा जाए लगता कैसा है। काफी के गिलास के कुछ ऊंचे दो गिलास में उबली नमकीन मकई मिली। कीमत 80 रुपये। हम और बलवंत उबली मकई खाते रहे, कोसते रहे। गाजियाबाद के शिप्रा माल में माधुरी दीक्षित की आजा नचलै लगी तो हम भी देखने पहुंच गए। गांव का मनई मकई का लावा (पापकार्न) देखा तो लपक लिए उधर। हम दो लोगों ने दो पैकेट लिए, कितना हुआ कहते हुए जेब में हाथ डाला। दोनों के 120 रुपये-सुनकर जेब से हाथ बाहर नहीं आ रहे थे। सौ ग्राम मकई की कीमत सौ रुपये से ज्यादा!!! किसान से इस पापकार्न की मकई दस रुपये किलो से ज्यादा पर नहीं आई होगी। खैर, दवा की कीमत की तरह बिना मोलभाव किए 120 रुपये चुकाए और शामली के अजंता थियेटर को बचाने के लिए माधुरी का स्ट्रगल देखने पर्दे के सामने टकटकी लगा लिए। यह सोचते कि किसी न किसी दिन, कोई माधुरी या राहुल आएंगे अजंता थियेटर की तरह जर्जर होते हम ( मूलत: ) किसानों को बचाने! ! !
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